नज़रिये मिलते हैं, ज़रा गौर करें हम


पर्व के दौरान बहुत कुछ नया समझने को मिलता है। उत्साह और उमंग के बीच बहुत सारे जीवन अपने -अपने सच को लेकर सामने आते हैं। धीरज हो, तो सुनें। उनकी आवाज़ें, उनकी नज़रें कई कहानियां बयान करती मिलेंगी। 

पर्व पर ख़रीदारी करने जाना अपने आप में एक नया नजरिया पाने वाला अनुभव होता है। अगर अफरा-तफरी वाले हालात में ना जाएं, थोड़े सुकून से बाजार पर नज़र डालें, तो कई विचारणीय पहलू मिल सकते हैं। 

मिसाल के तौर पर, दिवाली के सामान वाले बाजार में ज़मीन पर एक दरी या चादर बिछाकर बैठे विक्रेताओं से लेकर हाथ में रूई की बाटियों के पैकेट लेकर भागते छोटे बालक, कमल के फूल खरीदने का इसरार करती बालिकाएं, सड़क तक जमे सामानों वाली दुकानें, तो रौशनी से झिलमिलाते सोने के बाजार, रंगोली के स्तूप, दीयों के गेरुए ढेर, कहीं सजीले रूपों वाले डीप, पूजा के सामान ...... जहां नज़र घुमाइए वहां रौनक है और इनके बीच ज़िन्दगी की कहानियां दौड़ती मिलेंगी। 

खरीदारों के भी नाना रूप मिलेंगे ........

सौ दीये लेने वाले हैं, तो ग्यारह दीपक लेते हुए ये कहने वाले भी कि 'ठीक भाव लगा लो ना अम्मा, दिवाली मना लेंगे। ' खील-बताशे, रंगोली के थोड़े से रंग और लक्ष्मी जी का लेकर समृद्धि के आमंत्रण कि चाह करने वाले मिलेंगे, तो बड़े-बड़े डिब्बों में भरे सामानों को कार कि डिक्की में रखवाने वाले भी। 

एक दौड़ होती है पर्व के बाज़ारों में, जीवंतता कि तस्वीरें हों जैसे। खर्च करने कि ताकत में जो अंतर है उसे देखकर हैरत भी हो सकती है और कुछ तकलीफ भी, लेकिन देखा जाए तो एक ललक है त्यौहार को अपने=अपने ढंग से मनाने कि। जेबें कितनी भी बड़ी-छोटी हों उत्साह मायने रखता है। शायद ज़्यादा माद्दा रखने वालों के पास प्रेरणाएं मिलें, लेकिन काम खर्च कर पाने वालों कि कहानियां भी रोचक होंगी। बांचनेका समय अलबत्ता बहुत कम मिलता है। 

इसी दरम्यान उन लोगों को भी देख सकते हैं, जो केवल देखने आये हैं। 

कंधे पर बच्चों को बिठाए पिता मिलेंगे, जो महज़ दिवाली कि रौनक देखने-दिखाने के लिए बाजार में घूम रहे हों या बच्चे को कमर पर टिकाए माए। इन लोगों कि दृष्टि गौर करने लायक है। जहां माता पिता वस्तुओं को निहार रहे होंगे, वहीँ नन्हे बच्चे अपने ही ढंग से बाजार कि विवेचना करते मिलेंगे। 

एक ऐसे ही पिता-पुत्र को देखा। कंधे पर बेटे को बिठाए पिता पर्व के छोटे से हाटनुमा बाजार से गुज़र रहा था। उसकी निगाह हर गुज़रती दूकान पर ठहरती-उचटती जा रही थी, लेकिन बेटे कि नज़र बाजार के बिलकुल पहले सिरे पर बनी पकौड़े-समोसों कि खुशबू बिखेरती चाय कि गुमटी पर ठहरी रह गयी थी। कंधे पर सवार वो दूर तक केवल गुमटी को देखता चला जा रहा था। 

कहानियां नज़रों में भी छुपी होती हैं, दृश्यों से भी मिल जाती हैं।    

Reactions

Post a Comment

0 Comments