क्यूंकि खुश रहना अमीर होने से ज़्यादा अहम है

अपनी ज़िन्दगी का पोर्टफोलियो कैसा बनाएं 

की अपना हैप्पीनेस का सेंसेक्स अच्छा परफॉर्म करे?  

secret of happy life



ये कहते हुए भी बड़ा अजीब लग रहा है की कुदरत को सबसे पहले शामिल किया जाए। ऐसा इसलिए क्यूंकि हम और कुदरत कोई दो बातें थोड़ी हैं पर हमने ऐसा ही बना लिया है, क्यों? मानते हैं ना इस बात को। चलिए, फिर से खुद को यह याद दिलाते हैं की हम ही कुदरत हैं। बेशक, कुदरत अनंत है और हम उसी का अंश। तो जैसे ही हम खुद को कुदरत सा महसूस करने लगते हैं, हमारे बंद पड़े जंग लगे मन के द्वार खुलते हैं। भीतर रौशनी जाती है। सीलन दूर होनी चालू हो जाती है। 

फ़र्ज़ कीजिये, ऐसा घर जिसके 300 मीटर के दायरे में ही पानी का दरिया, पहाड़ या हरियाली मिल जाए। ऐसी ख्वाइश हम सभी की होती है तो फिर बड़ी अट्टालिकाओं में इतना निवेश क्यों होता है? आलीशान मकान, चौड़ी सड़कें ये भले ही पॉश इलाकों के पैमाने हो सकते हैं पर ख़ुशमिज़ाजी के समीकरण कुछ और ही हैं। अपने घर को बेहतर बनाने की चिंताओं में हम अपनी ज़िन्दगी का एक बड़ा वक़्त निकाल देते हैं जबकि घर वह जगह है जहां बैठकर हम अपनी बाकी परेशानियों का हल ढूंढ लेते हैं और उन्हें दूर कर लेते हैं। 

साथ - परिवार का, यार-दोस्तों का। अकेले भी रहा जा सकता है। यह करने योग्य है। जो अगर आसान होता तो आज पृथ्वी पे अधिकांश लोग हमे अकेले रहते ही नज़र आते। बहुत ज़्यादा मुश्किल है। इसलिए 'साथ' तलाशते हैं। ज़िन्दगी में हमारे साथ बहुत से लोग रहते हैं, कुछ हमे पसंद होते हैं पर ज़्यादातर नापसंद, तभी तो मैं अक्सर लोगों को उस 'एक' को ढूंढते देखती हूं। साथ हमे ऐसा चाहिए होता है जो सुने और समझे बिना प्रतिक्रिया दिए या कोसे। परिवार में ऐसे लोगों का साथ मिल जाए तो आप भाग्यशाली हैं। 

अब कुछ ऐसी बातें - भावनाएं भी होती हैं जो हम माँ -पिता जी या भाई-बहन से साझा नहीं कर पाते। ऐसे में हमे घर के बाहर ऐसे 'साथी' को ढूंढते हैं जो इस खालीपन को अपने स्नेह से भर दे। हम ये साथ दोस्त में पाते हैं। कई बार ऐसे रिश्ते जब ज्यादा गहरे हो जाएं तो जीवनसाथी में बदल जाते हैं। अब ये रिश्ते बड़े कीमती हैं। अगर आपको लगता हैं इस पूरी दुनियां में कोई ऐसा साथ आपको मिल गया है तो उसे दोनों हाथों से सम्भालिये। उसकी कद्र कीजिये। किसी प्रकार का भेदभाव रिश्ते में खटाई दाल सकता है। नीबू की बूंद खीर को इस कदर खराब कर देती है की फिर वह किसी भी काम का नहीं रहता। जीवनसाथी का रिश्ता किसी भी रिश्ते से ऊपर है। इसका कतई ये मतलब नहीं की हम अपने माता-पिता को छोड़ दे। उनका माँ-सम्मान, उनकी परवाह अपनी जगह रहेगी, बरकरार। पर पति और पत्नी जब एकदूसरे के लिए सर्वोच्चय प्राथमिकता बन जाते हैं तब व्यक्ति अपने आपको पूरी तरह से सुरक्षित और भरा-पूरा महसूस करता है - और इतना ही तो चाहिए सुकून के लिए। 

काम- आजीविका के लिए। इसे इतना भर ही रहने दें। पैसा हमे अपनी ज़रूरतों और ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए चाहिए होता है। पर कमाने की ज़द्दोज़हद में कब यही चीज़ें (जीके लिए कमा रहे हैं) पीछे छूट जाती हैं, पता नहीं चलता। जैसे कपडे में बेल्ट पहनने की ज़रुरत उतनी ही है की अगर वह ढीला हो तो कैसा जा सके वैसे ही ज़िन्दगी में पैसों की ज़रुरत उतनी ही है। किसी उद्देश्य के लिए काम कर रहे हैं तो उस उद्देश्य का पूरा होना ज़रूरी है, उससे आने वाला पैसा नहीं। वो तो आएगा ही स्वतः, उसे उतना ही महत्व दें। 

यहां एक बात और जोड़नी है, काम ऐसा हो जिसे करने और करते रहने के लिए मन उतावल (उत्सुक) हो। जहां बोरियत नहीं रहेगी, रचनात्मकता मुस्कुराएगी। बोझ नहीं रहेगा तो हर दिन उत्सवी तरंगे बहेंगी। मन हल्का रहेगा। तब आप, शाम घर लौटते वक़्त चिड़चिड़ापन, गुस्सा, तनाव या थकान नहीं बल्कि सुकून, संतोष और परिवार से मिलने की उत्सुकता लेकर घर आएंगे। जब जीवनसाथी शाम को चाय पीते वक़्त अपना सर आपके कंधे पर रखेगा या अपने हाथों आपका हाथ थामेगा तब दिन साकार हुआ लगेगा। बच्चे आपके कधों पे झूलेंगे तो आप उन्हें दूर नहीं हड़काएंगे। चाहिए ना ऐसे पल? तो काम का चुनाव किसी पर प्रभाव जमाने के लिए ना करें वर्ण देखिये ना कितनी भरी कीमत चुकानी पड़ती है आपको उसके लिए। काम भी आपका है, आपको ही करना है - जीवन भी आपका है, आपको ही जीना है। फिर कोई और वजह क्यों बने ये तय करने की कि सब कैसा होगा? क्यों? सही बात है की नहीं?  
      



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