मैं झूठ बोलना नहीं चाहता, पर ....

अगर स्वीकार कर लिया 

तो कभी कोई झूठ नहीं बोलेगा 

i don't want to lie but i can't tell the truth


आजकल हम अपनों से बहुत कुछ छुपाने लगे हैं। कई ऐसी बातें हैं जो हम उन्हें बता कर अपने लिए परेशानी आमंत्रित नहीं करना चाहते। यही कारण है की हमने अपना व्यक्तित्व भी दो तरह का बना लिया है - एक भीतरी जिसमे सब है, दूसरा वह जो हम सामने वाले के लिए प्रस्तुत करते हैं। ऐसा करना हम में से किसी को नहीं पसंद। अरे! बड़ा भारी काम है यह। छिपाने का बोझ लेकर जो चलना पड़ता है। पर ऐसा करना इसलिए ज़रूरी है ताकि बेवजह की बहस या कुंठा को पनपने ना दिया जाए।  

जैसे ही एक बच्चा अपने माता-पिता से कोई बात करना चाहता है, कुछ बताना चाहता है, तो उसे डांट दिया जाता है। "ये क्या किया तूने? ऐसा करने की तेरी हिम्मत कैसे हुई? तुझे हमारी इज्जत का ज़रा भी खयाल नहीं आया? ......." क्या ऐसा करके हम उसे सच बताने की सजा नहीं दे रहे हैं? उसे आगे चल के अपने अभिवाहकों को कोई मन की बात बताने की प्रेरणा कैसे आएगी? फिर माता-पिता सोंचते रहते हैं की बच्चे हमें कुछ बताते ही नहीं। 

जैसे ही कोई किसी से कुछ साझा करने की कोशिश करता है, उसे बदले में बहुत कुछ सुनने को मिलता है। ऐसे में वह घबरा जाता है और अपमानित महसूस करता है। और यह बात तो पक्की हो जाती है की अगली बार वह आपको कुछ बताने नहीं वाला। जब की किसी भी गहरे रिश्ते में होना यह चाहिए की दोनों को अपनी बातें एक-दुसरे से साझा करने में कभी कैसी भी हिचक महसूस नहीं होनी चाहिए। 

तो कैसे होगा ये? 

जब स्वीकार्यता का भाव होगा। व्यक्ति ने अगर कुछ गलत किया हो तो उसको अस्वीकार करना है, व्यक्ति को नहीं। हर व्यक्ति सच बोलने के लिए तैयार है। बस हमे सच सुनने के लिए तैयार होना है। अगर सामने वाले को आराम से कह देने का वातावरण देंगे तो वह कभी झूठ नहीं बोलेगा, कुछ नहीं छुपाएगा। जब कुछ छुपेगा ही नहीं तो रिश्ता और मजबूत ही बनेगा। सबका दिल हल्का रहेगा, क्यूंकि कुछ छुपाने को है ही नहीं।    

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