और हम प्रभु से बातें करने लगते हैं ...

 उपासना का मतलब है - पास में बैठना। उप और आसन से मिलकर बना है ये शब्द। उप का मतलब है पास में। आसन का मतलब है आसन लगाना या बैठना। इस में हमारे शरीर का महत्व नहीं होता। कोशिश करनी होती है की शरीर की हलचल शांत हो जाए। यहां तक की विचारों को भी शांत करना है। इस क्रिया में मन के भाव ही उपयोगी होते हैं। और यही भाव चेहरे पर भी झलकते हैं। 

ईश्वर के साथ हमारा सम्बन्ध भावनात्मक है। पद्धतियां अलग हो सकती हैं, कोई आकार की तो कोई निराकार की उपासना करते हैं। मंदिर में जो मूर्ती स्थापित है उसके प्राण ही तो हमे प्रभावित करते हैं। इसी में हमारा मन घूमता है। जब हमारा शरीर चुपहोता हैं तब हमारे प्राण ही तो हैं जिसकी क्रिया से हम जुड़े रहते हैं। प्राणायाम का यहां बड़ा महत्व है। हमारे मन की भावनाओं से प्रेरित होकर उस मूर्ती के प्राणों से बात करते हैं। 

हमारे शास्त्र कहते हैं की प्रभु की उपासना प्रभु बनकर करें। मतलब की प्रभु के साथ प्राणों का व्यापार करें। ऐसा एकाग्रता से होगा और यह आसानी से हम आप क्र नहीं पाते। इसकी शुरुआत पास बैठने के अभ्यास से की जा सकती है जिसका अंतिम लक्ष्य है एकाकार हो जाना। 

उपासना के दो पंख होते हैं। पहला है - भीतर की तरफ जाना। जहां वह बैठा है, जिसके पास जाकर बैठना है। और दूसरा है - मौन। शब्द बाहर के जीवन की भाषा है और मौन भीतर की। जब तक शब्द है तब तक हम बाहर से अलग नहीं हो पाते। भीतर भावनात्मक है, चित्रात्मक है। जो कुछ हमने अब तक बाहर के जीवन से सीखा है उसकी ज़रुरत भीतर नहीं, वहां हम यूं भी सब भूल जाते हैं। फिर धीरे धीरे कोशिशों से भीतर से बाहर का नया रास्ता खुलने लगता है। 

उपासना से हम लम्बे समय तक कुछ नहीं करना है की भाब में रह सकता हैं। जिस तरह शवासन में। यह वह तरीका है जिसमे बाहर का काम बंद करके हम भीतर की ओर मुड़ते हैं। बाहर से काट जाते हैं ओर मन से जुड़ जाते हैं। ऐसा करते हैं तो हम पाएंगे की हमारे विचार जो इतने चंचल रहते हैं वे भी आसानी से शांत होने लगते हैं। जैसे ही बाहरी व्यापर बंद होता हैं हमारा ध्यान भीतरी गतिविधियों पर जाता हैं जो तब बढ़ जाती हैं। आँखें वहां कुछ ओर देखती हैं और कान कुछ और ही सुनते हैं। हम यहां रौशनी के अँधेरे से अँधेरे की रौशनी में जाते हैं। हमे कई चित्र दिख सकते हैं, कई तरंगे हमसे बातें कर सकती हैं। कई तरह की कल्पनाएं बन सकती हैं यहां। यहीं इस मन को शांत करके आत्मा को जोड़ना हैं। और तभी हम प्रभु बनकर प्रभु से बातें करने लगते हैं।    



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