रिश्तों को सिलने की ज़रुरत है


एक छोटा बच्चा था। कोई नौ - दस साल का। अपनी छोटी बहन का फटा जूता मोची के पास लेकर गया था। जूता काफी पुराण था पर सिलवाने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं था। क्यूंकि घर में आर्थिक तंगी थी। जूता ठीक होने पर वह उसे एक थैले में दाल कर सब्जी लेने गया। वहां उसने जूतों का थैला दूकान के बाहर रख दिया। गलती से एक रद्दी वाला उस थैले को भी उठाकर ले गया। इधर जब लड़का बाहर निकला तो जूते गायब देख वह बेहद परेशान हुआ। घर पहुंचा बहन को बताया। वह खूब रोई। एक ही जूता था उसके पास। अब स्कूल क्या पहन के जाएगी। तब भाई ने उसके सर पर हाथ कर बोला,"चिंता मत कर। मेरे पास भी तो एक जोड़ी है।" तेरा स्कूल सुबह का है और मेरा दोपहर का। तो हम दोनों इसे बारी बारी से पहन लेंगे। हाँ पर घर पर किसी को बताना मत। खामखा माँ-पिताजी परेशान होंगे। 


अब रोज़ स्कूल के बाद बहन भागते हुए आती और भाई को जूते लाकर देती। भाई फ़टाफ़ट से वह जूते पहनता और स्कूल के लिए फिर दौड़ लगाता। सिलसिला चल रहा था। कई छोटे छोटे हादसे भी होते रहते। जूता बहन के पैरों के लिए बड़ा था तो कई बार वह दौड़ते हुए पैरों से निकल जाता और कहीं नाली - गटर में गिर जाता। और बहन फिसलती, उसे लगती सो अलग। फिर बड़ी मुश्किल से जूता वापस मिलता। उस दिन भाई को जेल जूता पहन कर स्कूल जाना पड़ता। कई बार देरी हो जाती तो प्रिंसिपल डांटते लगता। स्कूल से निकलने की बात करता।  फिर टीचर की सिफारिश पे की बच्चा पढ़ने में होशियार है, तो के कहने पर बच्चे को माफ़ी मिल जाती। इसी तरह की छोटी मोती परेशानियां आती रहीं और बच्चे उनसे निपटते रहे। पर कभी गलत रास्ते पर नहीं गए। 


ज़िन्दगी रोजाना परीक्षा लेती है। देखी, उन बच्चों की संवेदना। पहले से ही घर की कमजोर आर्थिक हालात को देखते हुए बच्चे अपने माता -पिता को और परेशान नहीं करना चाहते थे। इसलिए वे दोनों एक जोड़ी जूते से ही काम चला लेते हैं। और आजकल हम ऐसे बच्चों की देख रहे हैं जो सबकुछ हने के बाद भी अपने माता-पिता से खुश नहीं हैं। क्यों होगया है ऐसा? क्यूंकि हर रिश्ते में लेन-देन की भावना आ गयी है। इस समय में ज्यादातर परिवार उस टूटे हुए जूते की तरह हैं जिसे संवेदना, प्यार, और विवेक से सिलने की बेहद सख्त ज़रुरत है।   

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