बनाने में घंटों लगते हैं और खाने में कुछ पल ही


 बनाने में घंटों लगते हैं और खाने में कुछ पल ही 


बड़े जतन से बनाती हैं। कभी सुबह से तैयारी करती हैं, कभी कुछ धुप में सुखाती हैं फिर बारीक पीसती हैं, कभी कुछ पानी में भिगोती हैं, कभी अलग अलग मसलों को इकठ्ठा करती हैं विभिन्न चटाखेदार - मीठे - तीखे - रसीले जायकों के लिए। सब्जी पर बारीक कटा धनियां हो या हलवे पर पीस कर डाले गए इलायची के दाने, और दाल में एक चम्मच घी ऊपर से, सारे स्वाद समेत लेती है एक छोटी सी हमारी भारतीय थाली। 

जाने कितना सोंच सोंच कर लिस्ट बनाती हैं अपने घर के तमाम कामों के बीच। 


हमे सिर्फ खाना ही दिखता है, दिखती नहीं है किचन की गर्मी, ऊमस, उसका पसीना, उँगलियों पर कटे के घाव, हाथों में गर्म तेल के छींटें, कमर का दर्द, सर का दर्द, पैरों में सूजन ......  सफ़ेद होते बाल और उम्मीद भरी आँखें, सूखता हुआ दिल। उस छोटी सी रसोई में हम नहीं देख पाए ये सब भी था। 


हमने धायण दिया नहीं और कुछ साल और बीतते चले गए। वक़्त निकला तो अपने साथ कुछ और बदलाव थमा गया। कुछ बाल झाड़ गए, झुर्रियां आ गयीं। मकान को घर बनाने में लगातार लगीं रहीं वो। वो आज भी यही कर रही है, जो सालों से करती रही है। हमे देखते ही पूछ लेती है "कुछ चाहिए ?" 


चलो थोड़ा रुकते हैं, अपने कभी न ख़त्म होने वाले काम कुछ देर रोकते हैं, उसके पास चलते हैं। वहीं बैठेंगे। उसे से पूछेंगे उसकी कोई अनकही बात, कोई दबी हुई इच्छा जो दिखती नहीं। जो नहीं दिखा उसे देखना और भी ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है। क्यूंकि जब उसकी गैरमौजूदगी में कीकतें से दूद और दो बिस्कुट लेकर निकलते हैं तब अहसास होता है की उसने केवल खाना ही नहीं बनाया , बनाया है हमें   , शायद खुद को मिटा के। और पता है न बनाने में घंटों लगते हैं और ख़त्म करने में कुछ पल !


उसने बनाया है पूरा घर। कभी लिस्ट बना के, कभी अपना बुखार छुपा के। क्या कोशिश की जा सकती है उन्हें ना मिटने दे इसकी ??      

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