क्या आसान बनाने के लिए दूर हो जाना ही बेहतर था?




रात को सोते वक़्त मिलने आती हैं आपकी यादें, या सताने ही आती होंगी शायद। बड़ी सख़्त दिल हैं, हर वो चीज़, वो लम्हा याद दिलाती हैं जब आपके करीब आने का पूरा हक़ था मुझे। मैं अब भी आपके सीने की गर्माहट महसूस करती हूं, आपके बाजुओं में समा जाती हूं। पता है आपको बहुत मुश्किल है अब आपके बिना। उस तकिये को सीने से लगा लेती हूं फिर भी गर्माहट अधूरी सी लगती है। हज़ारों बार आपको पास लाती हूं अपनी कल्पनाओं में। काश की ये कल्पनाएं आपके होने का एहसास भी दे पाती। नहीं होता ना ऐसा। इसलिए इन अधूरी रातों को, अधूरी गर्माहटों को गले लगाए यही सोंचती रहती हूं कि क्या आसान बनाने के लिए दूर हो जाना ही बेहतर था?


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