सदा को मिल जाए दोस्ती


जीवनसाथी से रिश्ता दोस्ती में तब्दील होने में समय लगता है। जो शुरू से ही इसकी अहमियत को समझ लिया जाए, तो कड़वाहटें हो ही ना। 

हम अपने घर के बड़ों के रिश्तों को देखते हैं तो हैरत करते हैं कि कैसे ये लोग एक-दुसरे कि छोटी-छोटी जरूरतों का ध्यान रखते हैं। किसको मीठी दाल खाना ही पसंद है, तो किसे कुरकुरी रोटी क स्वाद भाता है। रंग से लेकर मौसमों कि चाहत तक सब बातें ध्यान रहती हैं। 

लेकिन इन स्नेह रगों को तपने में समय लगता है। दाम्पत्य के शुरूआती दिनों में अपनी पसंद अहम् लगती है। दूसरा नज़र कम आता है। 

छोटी -छोटी प्रवाहों से रिश्ते के धागे मजबूत बुनाई का रूप लेने लगते हैं, तब दूसरा भी नज़र आता है। अपने आप ही उन कामों को तरजीह मिलने लगती है, जो दुसरे को पसंद है।

क्या ही अच्छा हो, जो पहले से ही 'अपनी-अपनी सोंच' को 'हमारी सोंच' बनाने कि कोशिश कि जाए। 

वो जो शादी से पहले से इतनी साड़ी बातें होती हैं, तब दुसरे कि सुनते हैं, सुनते ही जाते हैं। यह सब अच्छा लगता है, लेकिन याद ज़रा कम रहता है। ना ही फ़ोन के खर्चे दिखते है। लेकिन शादी के बाद एक-दुसरे के लिए समय में तेज़ी से कमी आती जाती है। और खर्चे कि फिक्र सर उठाने लगती है। ये दुनियावी बातें हैं, जिनमे पहले सुनी पसंद-नापसंद, सोंच, नज़रिये बिलकुल शामिल नही हैं। अगर दूसरे कि बातों को याद भी रख लें और विवाहित जीवन में ुम पर अमल शामिल करें ,तो परवाह का रंग पक्का होने में समय ही नहीं लगे। 

हैरत तो इस बात पर होनी चाहिए कि कैसे इतनी बातें हवा में गुमहो जाती हैं। 

कैसे इतनी परवाह या वादे-कस्मे केवल जबानी जमाखर्च साबित होने लगती है। पुराने वक़्त के लोग इस तरह कि लम्बी बातों के पक्षधर नहीं होते होते थे। उनका मानना था कि जीवन जब शुरू हो, तभी पति-पत्नी भी एक दुसरे को समझने कि भी शुरुआत करें। 

आज पति-पत्नी बनने से बहुत पहले ही जैसे साझा जीवन शुरू करने के प्रयास होने लगते हैं। इस साथ रहने कि कोशिश में समझने और निभाने की कोशिश कम पड़ती है। कमजोर धागे, मजबूत साथ का आधार नहीं पाते। वो भी तब जबकि उनके हर पल उलझाव भी सामने आते रहते हों। 

मुद्दा ईमानदारी से, सच्चे दिल से किसी के संग की चाहत और उससे  निबाह की नीयत का ही है। शादी का यही आधार है। 

निबाह की चाहत और नीयत में छोटी-छोटी बातों में परवाह, ख़याल और फिक्र बड़ी भूमिका अदा करते हैं। लंबा समय बीत जाने के बाद उनको आदत के तौर पर अपनाने के बजाये क्यों न अपनी मर्ज़ी से एक-दूजे के लिए थोड़ा समय, बहुत साडी परवाह, पसंद का ख्याल और मन की संभाल करना शुरू कर दिया जाये। ताउम्र के साथी को दोस्त बनाना ज़रा भी मुश्किल काम नहीं है, बस, दोस्ती निभाने की बात है।      

Reactions

Post a Comment

0 Comments