स्कूल चले हम

अपनी मंजिल की ओर बढ़ते ये नन्हे, फुर्तीले कदम 

happy indian village kids going to school


स्कूल जाने वाले ये बच्चे जिनके चेहरे हम रोज़ देखते हैं। यारों से मिलने की उत्सुकता, पाठशाला में होने वाली अनेक प्रकार की उद्यम कोमल मन को बड़ा उत्साहित रखती हैं। इसलिए ये हिमालय की गोद में बसे गावों के वे बच्चे जिनके माता-पिता स्कूल जाने के साधनों का खर्च नहीं उठा सकते वे अपने दोस्तों संग हँसते-खिलखिलाते, मस्ती करते पैदल ही मीलों का रास्ता तय करने निकल जाते हैं, पढ़ाई करने के लिए। 

village boy going to school


दस साल का राजू स्कूल जाने के लिए तीन मील चलकर आता है। मैदानी और पहाड़ के रास्तों में ज़मीन-आसमान का फर्क होता है। राजू का स्कूल पहाड़ पर है और घर डेढ़ हज़ार फ़ीट नीचे बसे एक छोटे से गाँव में है। रोज़ाना तीन मील की हिमालयन ट्रैकिंग कतई आसान काम नहीं। और फिर राजू के पास ढंग के जूते भी तो नहीं हैं। पर वह हमेशा सूरज सा चमकता चेहरा लिए और तितली सी मस्ती के साथ चहकता हुआ अपने स्कूल के लिए जाता नज़र आता है। उसकी मुस्कुराहट में कोई शिकन या शिकायत नहीं। 

राजू के जैसे बहुत से बच्चे हैं। बेहद ज़रूरतमंद। ये बच्चे कम से कम अपने माता-पिता के स्कूल जाने के दिनों से थोड़ी बेहतर स्थिति में हैं, ये बात ज़रा सी तसल्ली ज़रूर देती है की बेहद धीमी ही सही पर गति आगे की तरफ ही है। इस तबके के कई माता-पिताओं ने शायद कभी स्कूल देखे भी नहीं। उनका अधिकांश जीवन खेती में ही बीता। पर राजू को देखकर लगता है की वह ज़रूर कुछ बेहतर करेगा। उसने कभी ट्रेन नहीं देखी पर पहाड़ों के ऊपर से उड़ते हवाई जहाज को ज़रूर देखता है। एक बार उसने पुछा की ये हवाई जहाज कहां तक उड़ सकता है? जब उसे ये पता चला की ये पूरी दुनियां घूम सकता है तब उसने कहा की एक दिन मैं भी पूरी दुनियां घूमूंगा। प्रभु, उसका सपना समय से सच कर दे। 


indian rural girls going to school


कुछ समय पहले तक लड़कियों को स्कूल जाते कम ही देखा जाता था। भाइयों को स्कूल भेजकर बहनों को घर के कामकाज कराते। फिर जब वे थोड़ी बड़ी हो जाती, उनकी शादी करा घर से विदा कर दिया जाता। पर अब माहौल बदलने लगा है। अब लड़कियां भी स्कूल जाने लगी हैं अपने भाइयों के संग। इन्ही में से एक है पंद्रह साल की राधा। आत्मविश्वास से भरपूर। उसके पिता जी भारतीय रेल में स्टेशन मास्टर हैं। वह भी अपनी दो चोटियों में लाल रिबन लगा कर, बन-ठन कर अपनी सहेलियों के संग रोज़ाना स्कूल जाती है। एक बार उसे हफ्ते भर से स्कूल जाते नहीं देखा तो उसकी एक सहेली से पूछ लिया की राधा कहीं बीमार तो नहीं पड़ गई तो पता चला की वह तो पूरी तरह से स्वस्थ है पर घर में शादी होने की वजह से वह माँ का हाथ बंटा रही है। तभी राधा के भाई को पास से निकले हुए देखा तो मैंने टोका, क्यों भई, तुम नहीं करोगे घर पर मदद? तो उसने सर हिलाते हुए कहा, नहीं, आज उसका क्रिकेट मैच है!

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जैसे ही सर्दियां पास आने लगती हैं, दिन छोटे होने लगते हैं। स्कूली बच्चे जिनके घर दूर गावों-कस्बों में हैं वे तेज़ क़दमों से घर लौटते दिखते हैं। राजू उन्ही बच्चों में से है जो अंधेरा हो जाने के बाद ही घर पहुंच पाते हैं। और पहाड़ों पर तो शाम छह बजे ही अँधेरा हो जाता है। राजू और उसके दोस्तों की यही कोशिश रहती है की वे छह बजने से पहले ही पहाड़ी जंगलों को पर कर खुली सड़क पर आ जाएं। 

चाहे देवदार के घने पहाड़ी जंगल हों या राजस्थान की रेंत वाली आंधी या कश्मीर की बर्फ की अंधड़, स्कूली बच्चे बड़ी बहादुरी के साथ चहकते हुए, फुदकते हुए तमाम तकलीफों को सहते हुए अपनी पढाई पूरी करते हैं। संपन्न घरों के बच्चों के लिए चीज़ें आसान हैं पर गाँव के ज़रूरतमंदों के लिया हालात अब भी बेहद मुश्किल। कई जगह तो बच्चों को पुल ना होने से नदी तैरकर स्कूल जाना पड़ता है। ना जाने कितने ही बच्चे माता-पिता के कामों में मदद करते हुए भी अपनी पढ़ाई ज़ारी रखते हैं। इस ज़ज़्बे को सलाम है। 

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जब भी इन छोटे- बड़े, बोले, शरारती, गंभीर, या चंचल स्कूली बच्चों को यूं जाता हुआ देखती हूं यही सोंचती हूं की वे सब कहीं ना कहीं ज़रूर पहुंचेंगे। प्रार्थना करती हूं की उनकी मंजिल उन्हें मिले और उनका जीवन बेहतर से और बेहतर बने।      

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