आज तन्हाई बैठी है मेरे साथ


आज तन्हाई बैठी है मेरे साथ। यूं अक्सर हम मिल लेते हैं पर कई बार मुलाकातें नहीं भी हो पाती। उसे कई औरों से भी मिलने जाना होता है। और इधर मुझसे मिलने भी कुछ और आ जाता है, introspection, ख़ुशी, नाराजगी, दुख, बेखयाली, या किसी का साथ जैसे कोई इंसान, कोई नज़्म, या रात की ओढ़नी में तारों की कसीदाकारी के बीच बुना हुआ चाँद!

 

रात की खिड़की पे उसका साथ अच्छा लगता है कई बार। जैसे वो मेरे लिए अपने साथ वक़्त लेकर आती है। उस वक़्त को बड़ा संभालकर मैं अपने हाथों में लेती हूं और कुछ देर के लिए कुछ नहीं करने की कोशिश तो ज़रूर करती हूं।

 

फिर मैं उसे सुनाती हूं वो तमाम चीज़ें, दिनभर की बातें, मेरा mood, आरोप - प्रत्यारोप, कोई confusion, कोई फैसला और वो सभी कुछ जो मैं पहले फ़ोन पर अपने 'दोस्त' से share करती थी। पर फर्क है, दोस्त judgemental भी हो सकते हैं पर वो नहीं होती, कभी नहीं।

 

फिर कुछ देर बाद, जब मेरा कह के हो जाता है तब वो मुझे चाँद देखने को इशारा करती है। फिर हम दोनों चाँद को देखने लगते हैं।


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