सालों को सवांरने कि कोशिशों में तारीखें बिगड़ गई


सालों को सवांरने कि कोशिशों में तारीखें बिगड़ गई और साल, वो तो खूंटियों पर टंगे कैलेंडर से नीरस होने लगे हैं। यादों के जो फूल कभी उस सफ़ेद तकिये के नीचे रखे थे, उसमे अब भी मौसम कि थोड़ी खुशबू बची है। उसी पर सर का टिप्पा दिए बाजू में खुली खिड़की से चाँद को आस्मां के एक सिरे से गुजरते हुए देख रहा हूं। उसकी आहट तो सुनाई नहीं देती पर उसकी चांदनी ज़रूर मेरे चेहरे पर पड रही है। targets पूरे करने और benchmarks सेट करने कि नाकाम कोशिशों कि वजह से माहौल में एक गहरी उदासी पसरी हुई है। इधर का सन्नाटा खबरों कि सुर्ख़ियों में नहीं बोलता। चुपके से हर मन यही कहता होगा ...... सब कुछ छोड़-छाड़ के कहीं चला जाना चाहता हूं। बहुत हो गया, अब और नहीं होता मुझसे। पर जीतने की बदमाश तमन्नाएं उसे उसी खूंटे से बांधे रखती हैं , और बंधे ही रखेंगी। क्यूंकि मन की चाभी उसने ज़माने को दे दी हैं। अब ज़माना जैसे चाभी भरता है उसका मन वैसे ही नाचता है।

 

आँखों की डाली पे जो सपने लगाए थे, घुटन की गर्मी से वो अब पकने लगे हैं। उनका ज़ायका ख़राब ना हो जाए, इतना ख्याल रहे। क्यूंकि सपनों के दम पर ही जिंदगी है, जो अगर सपने ना रहे तो खुद के होने का एहसास खत्म हो जाएगा। तो चलें, घुटन से बाहर, जहां सांस लेना सुखद है।


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