सबकी सीमा तय है


अक्सर हम किसी घटना की याद या किसी के व्यवहार अथवा उसकी तरफ से मिले धोखे को लेकर दुखी होते हैं। नाराजगी घेर लेती है, फिर सोंचते भी हैं की अच्छा-भला वक़्त था, ख़त्म क्यों हो गया? इतना बढ़िया वास्ता था, छूटा कैसे?


इस बारे में मशहूर लेखक मार्क नेपो का फलसफा शायद राहत देता महसूस हो। अक्सर तितली के कोकून में से निकलने या उसमे उसके पनपने के बारे में लिखा-पढ़ा-कहा जाता है। हम जानते हैं की, जा तितली कोकून से निकल जाती है, तो उस खोल को साथ नहीं ले जा सकती, जिसमे वो लार्वा से लेकर तितली रूप तक में ढलती है। ठीक ऐसे ही होते हैं गुजरा वक़्त, जीवन के मोड़ या दौर भी, जिनकी एक हद के बाद हमारे जीवन में जगह नहीं रह सकती। एक सफर की तरह समय अच्छा हो या बुरा, गुजरता चला जाता है। कुछ लोग भी खुद ही हमसे दूर हो जाते हैं। जिस तरह अच्छे दौर के गुजरने का अफ़सोस होता है, वैसे ही बुरे दौर को गुजरते देखने की छटपटाहट भी होती है। 


कई ताल्लुकात जिन्हे हम अपने जीवन का अहम हिस्सा मान लेते हैं, वे एक दिन हमसे यूँ अलग हो जाते हैं, जैसे की कभी जुड़े थे ही नहीं। हालात और समय की विवशता हमे भी उनसे दूर रहने पर मजबूर कर देती है और हम इस दूरी को लेकर मानसिक रूप से पीड़ित होते रहते हैं। जो अति संवेदनशील दिल होते हैं, वे तो बहुत परेशान हो जाते हैं। उन हालात में तितली वाला विचार याद रखा जाए, तो पीड़ा काम हो सकती है। इस फलसफे के मुताबिक देखें, तो तितली और कोकून का रिश्ता अवसर या मतलब का नहीं होता। कोकून में पल्लवित होकर जब तितली बाहर निकल जाती है, तो कोकून केवल एक खोल बचता है, जिसका छूट जाना नियति है। इसी तथ्य की रौशनी में, जीवन के उन दौरों को उन लोगों या नातों को लेकर पीड़ा का अनुभव और उनका बेमानी होना समझा जा सकता है। 


फिलहाल, हम सब भी जीवन के एक बेहद कड़े खोल वाले कोकून में बंद हैं।  एक पीड़ादायक पल्लवन का दौर है। जब यह गुजर जायेगा, तो सेहत-भरा, सुरक्षित दौर तितली के रूप में बाहर निकल आएगा और हम सब इस कड़े कोकून को छोड़कर आगे बढ़ेंगे। प्रक्रिया जारी है, अच्छा दौर आ रहा है .....।                   


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