खोजी ऊरु | Supergirl's First Adventure

I Found My Happy Place 

i want to travel around the world


हमे कभी घर से भागने की, स्कूल, ऑफिस बंक करने की हिदायत तो नहीं दी जा सकती, लेकिन कभी-कभी यह इतनी बुरी बात भी नहीं है। जीवन में हर किसी की कभी ना कभी यह इच्छा ज़रूर होती होगी की घर, स्कूल या दफ्तर से एक दिन आय कुछ समय के लिए कहीं दूर निकल जाएँ। वैसे तो घर या स्कूल से भागने की एक समृद्ध परम्परा रही है। अनेक सफल उद्ययमी वे हैं, जिन्होंने घर छोड़कर अपनी पहचान बनायीं। कई महापुरुषों ने कभी ना कभी स्कूल ज़रूर बंक किया होगा। यदि नहीं किया तो करना चाहिए था। 


खैर, मैं प्रीति को तारों की फेंसिंग को पार कर सामने आकर्षित करते हुए दूर तक फैले खेतों को करीब से देखने के लिए सफलतापूर्वक मना चुकी थी। ऐसा नहीं था की मैं और प्रीति कहीं गुम हो जाना चाहते थे। अगले दस मिनट में ही घर से काफी दूर आ गये थे हम। कौतूहल ऐसा था की पीछे देखना ही भूल गए। हम तो बस अपनी बाल जिज्ञासा लिए आगे बढ़ रहे थे कुछ ऐसा देखते हुए जिसे हमने तब तक केवल किताबों में देखा था। बहुत बड़ा आसमान, दूर तक फैले हुए खेत, खुले घूम रहे पशु-पक्षी। थोड़ा और आगे गए तो ऐसे इंसान देखे जिन्होंने कई खूबसूरत चटक रंगों से बने कपडे पहने थे, जो हमसे बिलकुल अलग थे। वह जगह हम दोनों को बेहद ख़ास लग रही थी और उन जगहवासियों को हम। उस जगह का नाम था गाँव। 


जैसे -जैसे हम अगर बढ़ते जा रहे थे हम समझ गए थे हम गलत नहीं कर रहे, भाग-वाग नहीं रहे बस दो नए खोजी अपनी पहली खोज पे निकले हैं। एक नयी सी दिशा में चले जा रहे थे। चाहे तो इसे सपना कह सकते हैं। हम एक सपने की ओर बढे जा रहे थे। 


माँ ने मुझे क्या कपडे पहनाये थे यह तो मुझे बिलकुल याद नहीं, याद है तो वह जूता जो जब तक मेरा ध्यान उस पर गया तब तक वह केवल एक पैर में ही बचा था। ना जाने दूसरा कब पैर से निकल गया था। अब मुझे थोड़ा सा डर लगा की मेरा एक जूता खो चूका है तो कहीं दूसरा ना खो जाए इसलिए मैंने वो एक जूता भी पीर से निकल के एक हाथ में पेहेन लिया की अब ये नज़रों के ज़्यादा पास है तो खोने से शायद बच जाये।    


जब सूरज ढलने लगा और रौशनी कम होती हुई लगी तब जैसे चेतना सी आयी और अब हम दोनों सपने से बाहर आ गए। क्यूंकि जैसे ही हमने अपने आसपास देखा हर तरफ गाँव, पशु और गाँव के लोग। हमारा घर हमारी कॉलोनी का दूर-दूर तक कोई निशान नहीं था। अब मुझे दर और भूख एक साथ लग रहे थे। 


अँधेरा गहराने लगा। अब जाकर मेरा ध्यान प्रीति पर गया। वह बड़ी थी इसलिए आगे के एक्शन प्लान के लिए मैंने उसे देखा, पर वह ज़ायदा दरी हुई दिख रही थी। उसी वक़्त मेरे बाल मन ने लीडरशिप का पहला पाठ अनायास ही सीख लिया था की जब सब घबराये तो आप घबराना अफ़्फोर्ड नहीं कर सकते। सो मैंने मोर्चा संभाला और उपाय के लिए नज़रें यहाँ-वहां दौड़ाई। थोड़ा दूर, बहुत दूर आगे रोड लाइट्स दिख रही थी। दादी जी के साथ कार में कइयों बार सफर करने से मुहे इतना ध्यान रहा की इस तरह की लम्बी-ऊँची लाइट्स वाली रोड में से जाकर हमारी कॉलोनी का मेन गेट आता है। बस मैंने हमारा नेक्स्ट स्टेप प्रीति के साथ शेयर किया की हमे अब बिलकुल भी देर ना करते हुए उस लाइट तक पहुंचना है फिर वहां से घर का रास्ता मुझे याद है (ऐसा मुझे लग रहा था)। उसके पास मेरी बातों पे विश्वास करने और उसे मानने के अलावा दूसरा कोई चारा भी नहीं था। सो अपने सपने से बाहर आते हुए हमने अब तक कुछ-कुछ थकान महसूस क्र रहे पैरों से जितना हो सके उतना तेज़ चलना चालू किया। 


थकान इतनी महसूस नहीं हो रही थी क्यूंकि अब घर पहुँचने की जल्दी, हड़बड़ाहट और डर ज़्यादा महसूस हो रहे थे। एक संकरी पगडण्डी उस ओर चली जा रही थी। हम उसी का पीछा करते रहे, सांस लेने के लिए रुके बिना। अब जो सफर था, उसके भाव, शुरूआती सफर से ठीक उलटे थे। चीज़ें डरावनी लगने लगी थी। अब बस घर पहुँचाना था। यूँ खेतों में रातें होती भी जल्दी हैं क्यूंकि रौशनी के कुछ चुनिंदा ही इंतज़ाम होते हैं। हमारे लिए रौशनी सिर्फ वो दूर से दिख रही रोड लाइट ही थी। और अब हम सड़क तक तो पहुँच गए थे। मैंने फटाक से एक दिशा में देखा फिर दूसरी दिशा में आँखें गड़ाई, पर कहीं अपनी कॉलोनी दूर से नज़र न आयी। 


मैं फिर थोड़ी घबराई। क्यूंकि एक्शन का रिजल्ट सोंचा हुआ नहीं निकला। इस घबराहट को मैंने प्रीति से छुपा लिया (लीडरशिप स्किल) ताकि वो ना घबरा जाए।  फिर में होनी सक्थ सेंस को सुना और नेक्स्ट डिसिशन था उस एक दिशा में आगे बढ़ जाना। में तुरंत प्रीति को कहा हाँ मुझे अब याद आज्ञा।  चलो इस तरफ जान है, इस तरफ आगे अपना घर आजायेगा। 


अगर मैं आज की बात करूँ तो  ऐसे हालात में आज का विध्वंसक माहौल तो इस नन्हे डर की इजाज़त देता ही नहीं।  अभी तो बेहद डरावने, खूंखार, जानलेवा और अमानवीय डर बच्चियों के दामन में ठूंस दिए जाते हैं। वर्ण ज़रा कल्पना कीजिये, रात के अँधेरे में, सूनी चौड़ी सड़क पर पोल्स की रौशनी और सड़क के दोनों ओर अनंत अँधेरे में दो छोटी बेहद छोटी बच्चियां दिशाहीन हुए किस मन से अपने घर को खोजते हुए चले जा रही होंगी। 25 साल पुराने इस दृश्य को मैं आज के समय में दाल कर देखने का साहस भी नहीं कर पा रही।      


खैर, अब तक चलते - चलते हमे दो से तीन घंटे हो चुके थे सो भूख अब जोरों की लग आयी थी। मेरी नज़र चाय की दूकान पर रुकी और फिर हम दोनों बिना कुछ बोले वहां जाकर रुके। यह मौन सहमति थी दोनों के बीच। दुकानदार को पहले कुछ समझ ही नहीं आया की यह बच्चे, कौन, यहाँ कैसे, इस वक़्त ! इन तमाम प्रश्नों को आँखों में लिए उसने जानना चाहा। हमने अपनी बची-खुची शक्ति के साथ उसे बात बताई। 


आज ऐसे लगता है की शायद वह देवता ही था जो उसने पहले हमे खाने को चाय के दो बड़े गिलास भर के और टोस्ट दिए। ये अलग बात है की मुझे उस उम्र में यह पता था  की मैं चाय नहीं पीती सो मैंने मन कर दिया तो मुझे दूद दिया गया। वो मैंने झट से जातक लिया। प्रीति कोई परहेज ज़ाहिर नहीं करते हुए पूरा (वह छोटा) नाश्ता खाया। 


यूँ उसने मांगना भी नहीं चाहा था पर मेरे मुँह से बात निकल गयी की हमारे पास पैसे भी नहीं हैं। फिर वह हमे पुलिस स्टेशन छोड़ने के लिए अपनी लूना पर बिठा लिया। मेरी और अंकल की गप्पें शुरू हो गई। प्रीति थोड़ी बड़ी थी इसलिए उसके डर का कद मेरे डर से थोड़ा बड़ा ही था। क्यूंकि जिस उम्र में में थी उस उम्र में ऐसे क़िस्म के डर का ज्ञान नहीं होता है।  


और बात करते हुए अचानक मुझे मेरे क्वाटर के मेन गेट के बड़े बड़े बल्ब दूर से ही दिखने लगे। मैं ख़ुशी से तेज़ बोल पड़ी - वही मेरा घर है। अंकल आखिर समझ गए थे की आखिर ये दो बच्चियां यहीं से तड़ी पार कर अपने भ्रमण पर निकली थी। 


फिर सीधे उन्होंने मेन गेट पर लूना रोकी, हम दोनों भी उतरे उनके साथ। गेट तो बंद था सो वॉचमन बाहर आये अपने साइड रूम से। शायद उन्होंने मुझे कम देखा होगा, उन्होंने हमे पहचाना नहीं। मैं फुदकती हुई उनके रूम में घुस गयी और वहां कोने में रखा एक लैंड लाइन फ़ोन देख तुरंत बोला की मैं अपने माँ-पिताजी को फ़ोन कर लून। कॉन्फिडेंस ऐसा दिखाया की जैसे फ़ोन नंबर मुझे याद ही होगा , पर ऐसा नहीं था। 


फिर मैं बाहर आ गयी और देखा की हमारी ओर कुछ 15 -20 लोगों का टोला गेट की तरफ आ रहा है। हम चारों देखने लगे एक-साथ।  जैसे ही वो सब दिखने तक की दूरी तक ए तो मैंने देखा अरे! माँ, बस मैंने भागती हुई उसके पास पहुँच गयी।   


यह मेरे जीवन के अनेक रोमांचक अभियानों में से पहला अभियान था। अनेक दुस्साहसों में से पहला दुस्साहस। आज लगता है की वास्तव में किसी भी सफर का सबसे मुश्किल हिस्सा होता है शुरुआत करना।    


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