मेरी तन्हाइयों के पुराने साथी

जो बेगरज मेरा है यार 



जिनसे बेवफाई का कोई डर नहीं 

मैं एक नन्ही तनहा बच्ची थी, जिसका हमउम्र कोई दोस्त नहीं था। इसलिए डायरी, कलम, craft  का सामन मेरे लिए बहुत मायने रखता था। मेरी तन्हाइयों के पुराने साथी। ढलती शामें, गहराती रातें। खिड़की से आती रातरानी की भीनी खुशबुएं। कॉफ़ी का बंदोबस्त कर लूं तो अच्छा, नहीं तो भी कोई दिक्क्त नहीं। हां, पर पेड़ों झुरमुठ से झांकते चाँद का होना बेहद ज़रूरी है।  

इनकी सोहबत का अपना आराम है, इत्मीनान भरपूर है। आपस में किसी के मन-मुटाव नहीं रहता सो मुझे कभी किसी को मनाने की फिक्र नहीं रहती। कई बार मैं और डायरी मिलकर शामों का इंतज़ार करते हैं। तो कभी पिता जी का दिया हुआ ट्रांजिस्टर मेरे साथ मेरे कमरे की खिड़की से चाँद को बुलाते हैं। हमारी रातों में ख़ामोशी चहकती है। 

ऐसा लगता है जैसे ज़रूर किसी तरह का रस निकलता होगा दिल या ज़हन में कहीं जो मेरे अंदर का मौसम बदल देता। स्कूली दिनों में देर रात तक मैं 'पढाई' करने के लिए जागा करती। तब ट्रांजिस्टर मेरे बाजू बैठा करता। पुराने हिंदी फिल्मों के गाने, रात तीन बजे कुछ अलग नहीं महसूस होते थे। शायद मैं अपनी उम्र से ज़्यादा ही महसूस करने लगी थी। बचपन के ऐसे कई किस्से हैं मेरे और मेरे साथियों के साथ। 

ऐसा साथ, ऐसी दोस्ती, कोई इसका कोई 'मतलब' नहीं था, शायद इसलिए ही साथ है, साथी हैं, मतलब होता तो साजिश होती। दोस्त ये गज़ब के निकले। इंसानी दोस्तों से कहीं-कहीं बेहतर। साथ निभाने में इनकी बिसात बहुत अच्छी है। इंसानों से भी गहे-बगाहे पाला पड़ता रहा। उम्र के कुछ पड़ावों में कोई न कोई आता - जाता गया, बस ठहरा नहीं। क्या इंसानी फितरत ऐसी है?  मैं भी इसी बिरादरी से आती हूं, पर फिर भी समझ पाना मेरी भी समझ के परे है।  



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