कोई सपनों के दीप जलाए

'आनंद' के 50 साल


इस फिल्म ने हम सभी को ज़िन्दगी को देखने के कई नज़रिये दिए हैं।  ज़िन्दगी क्या है, इसकी अहमियत क्या है, हम इसे दरकिनार ही रखते हैं। दौड़े ही जा रहे हैं, बस। इस फिल्म ने क्या सिखाया है, या हम क्या सीख सकते हैं इन डायलाग से समझने की कोशिश करते हैं -  

"बाबूमोशाय, ज़िन्दगी और मौत ऊपरवाले के हाथ है जहाँपनाह उससे न तोह आप बदल सकते हैं न मैं, हम
सब तो रंगमंच की कठपुतलियाँ हैं जिनकी डोर ऊपरवाले की उंगलियों में बंधी हैं,कब, कौन, कैसे उठेगा यह कोई नहीं बता सकता है !"

"बाबूमोशाय ज़िन्दगी बड़ी होनी चाहिए लम्बी नहीं"

"जब तक जिन्दा हु तब तक मरा नहीं, जब मर गया साला में ही नहीं।"

"हम आने वाले गम को खींच तान कर आज की ख़ुशी पे ले आते है,और उस खुशी में ज़हर घोल देते है!"

"मौत तो एक पल है..."

"यह भी तो नहीं कह सकता कि मेरी उम्र तुजे लग जाये!"

"हम आने वाले गम को खींच तान कर आज की ख़ुशी पे ले आते हैं। और उस ख़ुशी में ज़हर घोल देते हैं। 

"कब, कौन,कैसे उठेगा। यह कोई नहीं बता सकता। "

है ना, ये कोरा सच! फिर क्यों नहीं उतारते हम इसे अपने भीतर। इतना आसान फलसफा समझने में कौन सी परेशानी है! जी लो यार - इतनी सी तो बात कही है। इसके गानों को ही ले लीजिये, वे हमारी playlist में आज भी पूरे हक़ से जगह बनाये हुए हैं। ऐसा बहुत कम हो पाता है की हम कोई गाना सुनें और पिक्चर की कहानी आखों में घूम जाए। 

"कभी यूँहीं, जब हुईं, बोझल साँसें 
भर आई बैठे बैठे, जब यूँ ही आँखें, 
तभी मचल के, प्यार से चल के 
छुए कोई मुझे पर नज़र न आए"

"रूठी रातें, रूठी हुई रातों को जगाया कभी 
तेरे लिये बीती सुबह को बुलाया कभी 
तेरे बिना भी तेरे लिये ही दिये जलाये रातों में"

"जिन्होंने सजाये यहाँ मेले
सुख-दुःख संग-संग झेले
वही चुनकर खामोशी
यूँ चले जाएँ अकेले कहाँ"

गीतकार ने इन शब्दों में जादू लिखा है। जो गर समझ गए और समझकर जी लिया तो बात है वरना इस संसार में भागने का ही संस्कार है! मेरा अनुभव कहता है, जितनी बची है बचा लीजिये, जी लीजिये।   


आनंद मरा नहीं, आनंद मरते नहीं।

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