यादें कुछ यूं बनाई जाती हैं

महसूस करने को वक़्त दीजिये 



मोबाइल ने जीवन को जितना आसान बनाया है, जितना हमे करीब ला दिया है शायद उस से ज़्यादा दूर भी किया है। कहीं हम ने तस्वीरों को यादों का प्रतिनिधि तो नहीं बना दिया, जीवंत क्षणों को जीना एक तरफ रख कर?

एक परिवार पिकनिक मनाने आया था। उन्होंने एक सुंदर जगह चुनी थी। झरने के पास, पहाड़ की तलहटी में। उन्होंने अपना सारा सामान एक पेड़ के नीचे रखा और अलग-अलग जगहें ढूंढने में जुट गए। कोई किसी कोने में सेल्फी लेने लगा, तो कोई किसी और जगह पर। कोई पोज़ दे रहा था तो कोई झरने का वीडियो बना रहा था। दरी पर बैठी दादी सबकी ओर मासूमी से ताक रही थी। एक बच्चे ने उन से पूछा, "दादी, आप क्या देख रहे हो?" दादी ने कहा, "यहां हम पिकनिक मनाने आए हैं ना?" बच्चे ने कहा. "हां दादी, बिलकुल"। तो दादी ने जो कहा उस पर विचार कीजियेगा। दादी ने कहा, "पिकनिक पर आने का मतलब तो सबके साथ मिलकर आनंद के क्षण बिताना होता है, पर यहं तो सब अपने-अपने में गुम हैं। सबको खुद की तस्वीरें खींचनी हैं, सेल्फी। दिखावा जो करना है दोस्तों के बीच।" 

यह एक बड़ा और कड़वा सच है। हम सब कहीं भी जाएं, फ़ोन हाथ में होता है। तस्वीरें खींचने और सोशल मीडिया पर साझा करने को हम अपनी अनुभूतियां साझा करना मानते हैं। जबकि कुछ महसूस करने का हम समय ही कहां लेते हैं? तस्वीरें उस समय का चित्र होती हैं, मात्र चित्र। अगर कोई हमसे कहे की कुछ बयां करो, तो हम केवल तस्वीरें दिखा पाएंगे। 

जहां तक पर्यटन का सवाल है, चंद तस्वीरें तो  हैं। लेकिन जब परिवार और दोस्तों के साथ हों, तो यादें बनाने के  और भी ज़रिये हैं। होने चाहिए। 


एक कहानी पढ़ी थी बचपन में, जहां चचेरे-मौसरे भाई-बहन पिकनिक पर जाते हैं। पिकनिक वाले स्थान के आसपास के पेड़ों को जांचते-समझते हैं। फिर सर्वसम्मति से एक पेड़ के नीचे साथ लाई दरी बिछाते हैं। खाने के सामान को रखकर, कुछ देर खेलते हैं। फिर भोजन का पिटारा खुलता है और उसमे से शर्बत निकालकर पीया जाता है। फिर वे आसपास की जगहों को घूमते हैं, देखते हैं, बातें करते हैं, पत्थरों और फूल-पत्तियों, फल पर चर्चा करते हैं। उनके रंग, पत्तियों, फूलों की छुअन को महसूस करते हैं। फिर भोजन की बारी आती है और भोजन में लाई हर वस्तु को स्वाद ले-लेकर खाया जाता है। शाम को घर पहुंचकर, घर के बड़ों को बताने के लिए उनके पास बहुत कुछ होता है और यादों में दर्ज़ करने को भी। 

अगर कहानी वाले बच्चों के पास कैमरे वाले फ़ोन होते, तो तस्वीरें होतीं, दूर बैठे दोस्तों से बातें होतीं, भोजन की भी तस्वीरें होतीं, पर रिश्तों की समझ के, यादों के खजाने खाली ही रहते। 

ज़रा सोंचिये, हर बार किसी जगह का जिक्र करने पर आपको तस्वीरें दिखानी पड़ें, तो यादें ही कहां बनी? आपस में जुड़ाव बनाने के ऐसे अवसर जहां बचपन में जश्न मनाया जाता है, बड़ों से सीखा जाता है, प्रकृति को समझा जाता है, यूं ही जाया नहीं हो गया? ज़रूर सोंचिये।         

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