हम क्यों जी रहे हैं?

चलो जीते हैं 


Why are you living in this world?



"हम क्यों जी रहे हैं?" वही प्रश्न, कई बार सुन चुके, कभी हमने भी किसी से किया होगा, किसी ने हमसे किया रहा होगा। वाकई प्रश्न काफी पुराना है। पर क्या हमारे पास इसका जवाब है? चलिए, इसे थोड़ा विस्तार में पूछते हैं, "कौनसी मंज़िल पा लेना चाहते हैं हम जीकर?" ज़नाब अगर हमे इसका जवाब नहीं पता तो क्या हमारे जीने और नहीं जीने में कोई फर्क है भी? आखिर क्यों जीना? सिर्फ ज़िन्दगी से रोज़ एक नयी शिकायत करने के लिए? किसी दूसरे को कोसने के लिए? 

आपको भी लगता होगा, ज़िन्दगी में कई बार हम अपने आपको अंधेरों में ही जीने के लिए तैयार कर लेते हैं। हर हालात की इतनी हैसियत नहीं की उसे हमेशा स्वीकार ही कर लिया जाए।  

स्कूल वाला बचपन, उस वक़्त ये सवाल हमारे सामने नहीं होता। आजकल तो कॉलेज जाने वालों को भी शायद ही पता हो। पढ़ाई पूरी होती है, नौकरी मिल जाती है। कोई इक्का या दुक्का ही होता है जो स्वतंत्र जीने की तैयारी करता है। कुछ अपना करने की सोंचता है। आप ने गौर किया यह प्रतिशत कितना कम है। मतलब शिक्षित व्यक्ति के मन में भी असुरक्षा का भाव है। 

अब शादी की बात भी कर लेते हैं। जीवनसाथी के लिए तैयार करना भी अंधरे में चलने जैसा ही है। फिर लड़कियों के लिए तो थोड़ा ज़ायदा ही मुश्किल है। खुद का घर, अपनी जगह छोड़ने का 'नियम' जो निभाना पड़ता है। कैसा घर -परिवार मिलेगा? उन्हें अपना बना पाएगी या केवल ससुराल ही बन कर सब रह जाएगा? सबसे अहम, क्या अपना सम्मान, अपनी स्वतंत्रता बनाए रख पाएगी? पति उसके सपनो, उसकी जीने की प्रेरणाओं को समझेगा? कुछ भी पता नहीं। और हम बस लगे हुए हैं। 

है ना ये कितना अंधकारमय। इसे छांट देने वाला सूरज कहां मिलेगा? इसका उदय हमारे अंदर ही होता है। ज़िन्दगी हमारी है ना और जीना भी हमे ही है। तो अपने बूते पे जीते हैं ना। रास्ता अंधेरे वाला ही है, पर जो 'जीने' लगते हैं वे सूरज की किरणों को पहचानने लगते हैं। "अपनी मर्ज़ी से जीना है" निर्णय लेने भर से हमारा रास्ता सुगम नहीं हो जाता। रास्ते में कोई फूल बिछाने वाले बमुश्किल ही मिलते हैं। हां, कंकड़ - कांटे बिछाने वाले ज़रूर ही मिलते रहते हैं। इनकी संख्या हमारी उम्मीद से कहीं ज़्यादा है। पर शर्त ये है की हमे चलते जाना है।

दूसरी कठोर शर्त यह है की हमे हंसते हुए जीना है। 

ख़ुशी महसूस करते हुए जीना है। 

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