खुद को बचा लेना कितना ज़रूरी था

अपनी भी संभाल करनी होती है 

दूसरों को संभालते हुए कहीं खुद को नज़रअंदाज़ तो ना कर बैठे हम 



लोग आते हैं। हफ्ता - दस दिन रुकते हैं। कुछ तो महज कुछ घंटे। तो कुछ, कुछ साल। फिर चले जाते हैं। आजकल जैसे कोई ठहरने नहीं आता। हाँ, बातें ज़रूर होती हैं बड़ी-बड़ी। पर उनके साथ की उम्र उतनी ही छोटी होती है। 

अमूमन हर बार का है। ऐसा अनेकों बार दोहरा कर यह समझ आता है की खुद को थोड़ा तो बचा लेना था। थोड़ा-थोड़ा करके हम हर रोज़ कितनों के लिए कितनी ही बार खर्च हुए हैं। हां, एक ज़रुरत तो हमारी भी होती है, हम भी उन्हें इसलिए भी आने और रुकने देते हैं। पर शायद धोखा रहता है हमे की ये एक तरफ़ा नहीं।  जो अगर ऐसा न होता तो  ज़ज़्बात खारे होने से बच जाते। 

तेज़ी से खत्म होती दिलचस्पी एक बड़ा कारण है। ऐसी दुनियां में जहां हर दुसरे दिन मोबाइल और अन्य चीज़ों के नए मॉडल्स आते हैं वहां इंसानी अहसास एक कोने में खड़े सब ताक रहे होते हैं। यहां बोरियत बड़ी है।  

काश थोड़ा सा बचाया होता खुद को तो उन दिनों में खर्च करने के लिए कुछ तो होता जब हमारे साथ कोई नहीं होता। बस हम होते हैं, खर्च हो चुके। तन्हा। 

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