भगवान पर मज़ाक पे इतना 'तांडव' क्यों?

भगवान का मज़ाक उड़ाना | OTT Marketing Strategy 

Shivling is a hindu god worshipped in India.

अपने products बेचने के लिए देश, धर्म, जाती, सम्रदाय, माता-पिता, बजुर्ग, आदर्शों का पूरे इरादे से मज़ाक उड़ाना आखिर किस तरह का प्रगतिशील विचार है? 

एक बार BBC ने M F Hussain से पूछा की आपने हिन्दू देवी-देवताओं को न्यूड पेंट क्यों किया? तो उन्होंने इसका जवाब महाबलीपुरम और अजंता के मंदिरों में ढूंढने को कहा। वो केवल कला की जवाबदेही लेंगे जो की यूनिवर्सल है। 

तांडव की बात करें तो उन्हें अपनी सीरीज की सफलता के लिए जो भी करना पड़े किया। उसी में से एक है दर्शकों में कोतुहल पैदा करना चाहे कोई भी तरीका क्यों ना अपनाना पड़े। हिन्दू देवताओं को मज़ाक का विषय बनाने से उन्हें सुर्खियां मिली और ढेर सारे दर्शक भी। 

Tandav TV Series starrer Saif Ali Khan released in 2021 is accused of hurting religious sentiments of hindus.

हमारी आस्था एवं श्रद्धा के प्रतीक जिनके सामने हम नतमस्तक हो जाते हैं उनकी खिल्ली कोई उड़ा दे तो कैसी बौखलाहट होगी? और OTT platform तो शायद है भी इसी चीज़ के लिए। भारी मात्रा में content quality ऐसी है जो हमारे समाज और बड़े परदे पर नहीं दिखती। मिर्जापुर को ले लीजिये, गलियों को कंटेंट का गहना बना दिया है।

बदकिस्मती ये है की समाज के एक हिस्से को हिन्दू धर्म के प्रतीकों का मज़ाक उड़ाना 'कूल' लगता है जिस वजह से धंधा करने वालों ने इसे अपनी market USP बना ली है। लोगों ने इसे 'अभिव्यक्ति की आज़ादी' का नाम दिया है जो की एक 'प्रगतिशील विचारधारा' का मतलब है। इंदौर में हिरासत में लिया गया वो लड़का जो standup comedy करके अक्सर हमारे प्रभु-हमारे इष्ट को निशाना बनाता रहा है वह इसी विचाधारा का लीडर है। उससे पुछा तो अब्दी अकड़ में बोलै की मैंने इस्लाम पे भी कंटेंट बनाया है।  

Stand-up comedy का भी OTT platform जैसा ही है, देश-धर्म-समाज का माखौल उदय जाता है तो सामने बैठे "प्रगतिशील विचारधारा" के नौजवान hooting करते है और तालियां 'ठोकते' हैं। माँ-पिताजी का मज़ाक उड़ाना, बुजुर्गों का मज़ाक उड़ाना सब 'कूल' है। कमल की बात तो यह है की इनके माता-पिता भी ये मान चुके हैं की आजकल बच्चों की भाषा में गाली-गलौच आना नॉर्मल है। अपने उन पेरेंट्स को भी अंग्रेजी में गाली देने पर बच्चों को बड़े प्यार से टोकते हैं। इसे डांट नहीं सहमत होना कहेंगे वो भी दबे हुए गर्व के साथ की हमारे बच्चे की 'upbringing' मॉडर्न है। 

ये समाज का वही हिस्सा हैं जिसने मूवी थिएटर में राष्ट्र गान बजने पर खड़े होने पर खड़े होने को फालतू बताने में पूरी ऊर्जा लगा दी थी। 

बंगाल अभी राजनीति का केंद्र बना हुआ है। तो चलिए टैगोर की बात सुनते हैं। उन्होंने अपने एक पत्र में कहा था की, 

"तथाकथित शिक्षित मनुष्य भारत का उपहास करने में ही अपना गौरव समझ बैठे हैं।"  

ये प्रगति है या मानसिक गिरावट? 

अपने products बेचने के लिए देश, धर्म, जाती, सम्रदाय, माता-पिता, बजुर्ग, आदर्शों का पूरे इरादे से मज़ाक उड़ाना आखिर किस तरह का प्रगतिशील विचार है? 

रिवाज़ों का मज़ाक बनाया तो सिर्फ खोखलापन रह जाएगा क्यूंकि जिन मूल्यों को भरकर हम जिंदगी बनाते हैं उनको तो मज़ाक में उड़ा ही दिया!


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