कौन होता है दरिद्र?



हमारी संस्कृति का मूल प्रकृति और हमारे समन्वय से है। हमारे हर पर्व, परंपरा का आधार प्रकृति ही है। जिन सिद्धांतों पर प्रकृति काम करती है उन्ही पर अपना शरीर भी काम करता है। दूसरी बात है एकत्व की। क्यूंकि हम सब एक दुसरे से जुड़े हुए हैं। और देखा जाए तो हम सब एक दुसरे के व्यवहार में बदलते रहते हैं। 

हमारे समाज का ताना-बाना भी इन्ही सिद्धांतों पर टिका है। पर हमारी 'शिक्षा' ने हमारी भीतरी समझ खत्म कर दी है। इसलिए हमे अपने पर्व त्योहारों का महत्व नहीं पता। ले चलते हैं आपको पछास साल पहले की दिवाली में जो भारत के गावों में मनाई जाती थी। 

मिट्टी के घर, मिट्टी के आँगन में मिट्टी का दिया। बिजली नहीं थी ना उस समय। फसल काट जाने का और लक्ष्मी के आने की ख़ुशी चेहरों को रोशन करती थी। सर्दी के आने के उल्लास में गीत गाये जाते थे। पटाखे भी नहीं थे तब। नए अनाज को ठाकुर जी का भोग लगाते और शाम को बैलों की पूजा। उनके सींग रंगना, उनका श्रृंगार करना, श्रद्धा के साथ पूजा ... मन मोहक! अभी ऐसा कुछ देख प् रहे हैं हम ? सब दिखावे और अहंकार की भेंट चढ़ गया। 

लक्ष्मी की बड़ी बहन है दरिद्रता। और कौन होता है दरिद्र? आसान है परिभाषित करना। वह जिसके मन में अभाव हो। भीख मांगना ही क्यों हर दरिद्रता का संबोधक हो? रिश्वत लेना भी माँगने का ढंग ही है। बल्कि मुझे लगता है की भीतर से तो हम सभी कहीं ना कहीं किसी ना किसी तरह के आभाव से झूझ रहे हैं। तो हुए ना अपन भी दरिद्र इस संज्ञा से। और ये आप भी समझ पा रहे होंगे की पैसा 'उन' अभावों की पूर्ती नहीं कर पा रहा। इस कमी का प्रभाव हमारे व्यवहार में भी पड़ता।  


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